बच्चों में टीबी रोकना अभी भी है चुनौतियों भरा

बच्चों में टीबी रोकना अभी भी है चुनौतियों भरा

                                                                  (सांकेतिक तस्वीर)

नरजिस हुसैन

राकेश 12 साल का है और पिछले कुछ महीनों तक ट्यूबरक्लोसिस (टीबी) से जूझ रहा था। दिल्ली के मिंटो रोड के पीछे बसे अन्ना नगर के स्लम में रहने वाले राकेश की पढ़ाई में भी उसकी इस बीमारी की वजह से काफी हर्जाना हो गया था। उसे तो मालूम ही नही था कि उसे टीबी जैसी कोई बीमारी है। टीबी एक बैक्टीरिया जनित (मायकोबैक्टेरियम ट्यूबरक्लोसिस) संक्रमित बीमारी है जो हवा के जरिए फैलती है। टीबी सबसे पहले फेफड़ों पर हमला कर उन्हें कमजोर करता है। हालांकि, अच्छी बात यह है कि एक जानलेवा बीमारी होने के बावजूद इसका बचाव और इसका इलाज मौजूद है। बावजूद इसके देश में हर रोज 200 बच्चे सिर्फ टीबी से ही मरते हैं, लैंसेट की 2016 की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 2015 तक टीबी के मरीज बच्चों की तादाद 2 लाख थी लेकिन, 99,000 मामले ही दर्ज हुए थे क्योंकि देश में बच्चों में टीबी के ज्यादातर मामले पंजीकृत हो ही नही पाते।

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लक्षण पहचानना और पंजीकरण दोनों ही नहीं आसान

इंटरनेशनल युनियन एगेनस्ट टीबी एंड लंग्स डीजीज ने अपनी रिपोर्ट ‘The Silent Epidemic: A Call to Action Against Child TB’ में बताया कि भारत में 2016 में विश्व में सबसे ज्यादा बच्चों (0-14 साल) में टीबी के मामले दर्ज हुए। चीन दूसरे नंबर पर रहा। जिनेवा में हुई वल्र्ड हेल्थ असेंबली में रिपोर्ट ने बताया कि दुनियाभर में बच्चों में टीबी की कुल आबादी के 90 फीसदी बच्चे जो टीबी के मरीज थे उन तक लाज की सुविधाएं पहुंच ही नहीं पा रही थी, उनमें भारत भी शामिल था। हालांकि, दुनिया में टीबी के कुल मामलों में 10 फीसद ही बच्चों का टीबी है लेकिन, टीबी से कुल मरने वालों में 16 प्रतिशत बच्चों के मामले ही दर्ज हो रहे है।   

बच्चों में टीबी इसलिए भी जल्दी पकड़ में नहीं आता क्योंकि खेलने खाने की उम्र में न तो इनको इस बीमारी के बारे में मालूम ही होता है और न ही इनके घर के लोग इतने चौकन्ने होते है कि बच्चों की सेहत में आ रहे एक-एक बदलाव को ध्यान में रखे। बच्चों में टीबी के शुरूआती लक्षणों में कुछ खास हैं- उनकी विकास रुकना जैसे बच्चे अपनी उम्र के अनुसार बढ़ते हैं, लेकिन कई बच्चों का शरीर कमज़ोर होता जाता है जिससे उनकी ग्रोथ रूक जाती है।  कई बार बच्चों में गले की ग्रंथियों में सूजन हो जाती है और बच्चों को इसमें दर्द भी होता है। बेमौसम अगर बच्चों को बार-बार ठंड लगे तो यह टीबी का लक्षण हो सकता है। क्योंकि बड़ों में रात को बुखार और पसीना आने की शिकायत देखी जाती है। 15 साल की उम्र से छोटे बच्चों में कई बार छाती में दर्द होता है। इसके अलावा बच्चों में बड़ों की ही तरह 3 हफ्तों से ज्यादा खांसी, अचानक वजन घटना जैसे लक्षण भी देखें जाते हैं। इन्हीं लक्षणों को पहचानने में देरी से इनका इलाज भी देर से शुरू होता है। हालांकि, ज्यादातर मामलों में देखा गया है कि बच्चों में टीबी अपने परिवारजनों के जरिए ही फैलता है।

टीबी मानव जाति की सबसे पुरानी बीमारियों में से एक है। और आज भी बाल मृत्युदर के दस बड़ी बीमारियों और कारणों में एक टीबी या तपेदिक है। आज के बच्चों में टीबी कल की युवा पीढ़ी तक जाती है और इसका सीधा असर किसी भी देश के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी पर पड़ता है। राकेश की मां ने बताया कि, ”राकेश किस्मतवाला था क्योंकि ड़ाट्स के छह महीने का इलाज लगातार उसने बिना किसी चिड़चिड़ेपन से लिया। फिर हमने डॉक्टर साहब के कहने से इसके खान-पान का भी पूरा ध्यान रखा।” लेकिन, उसी जैसे या उससे कम उम्र के हजारों बच्चों में यह इलाज अक्सर ड्रग रेसिस्टेंट (शरीर पर दवाईयों या किसी एक दवा का असर बंद होना) स्तर तक पहुंच जाता है। इस स्तर पर आते ही इलाज लंबा, मंहगा और ज्यादा तकलीफदेय हो जाता है। ड्रग रेसिस्टेंट या मल्टी ड्रग रेसिस्टेंट (एमडीआर) के बाद कभी नौ महीने या कभी दो साल तक का भी वक्त लग जाता है।

खाना और रहना है बड़े फैक्टर

भारत जैसे विकासशील और कम आय वाले देशों में आबादी का एक बहुत बड़ा तबका ऐसा है जो स्लम में जीवन जीने को मजबूर है। रोजगार, बेहतर भविष्य और बच्चों की अच्छी पढ़ाई की वजह से लोग गांवों से ब़ड़े शहरों का रूख तो जरूर करते हैं लेकिन, यहां कि मंहगी जिन्दगी में वे दो वक्त का खाना ही जुटा लें बड़ी बात है। छोटे-छोटे कमरे में पांच से सात या उससे भी ज्यादा लोग रहते हैं, उसी कमरे में रसोई और शौचालय भी या अक्सर साझा शौचालय, कमरे या यूं समझिए कि झुग्गी में हवा की आवाजाही का कोई बंदोबस्त नहीं और उसी में करीब हर उम्र का इंसान रह रहा है। खुली हुई गंदी बहती नालियां और साफ–सफाई का कोई इंतजाम नहीं और इसी में जीता है भारत का कल।

इन हालातों में अब इन बच्चों को भरपूर पौष्टिक खाना मिले ये किसी सपने से कम नहीं। यूं तो भारत सरकार ने अप्रैल, 2018 में निक्षय पोषण योजना की शुरूआत की थी जिसके तहत टीबी के हर नोटिफाइड मरीज को डायरेक्ट ट्रांसफर के जरिए खान-पान को पौष्टिक बनाने के लिए 500 रुपए हर महीने देने का बंदोबस्त किया गया था। मरीज अगर बच्चा है तो जाहिर है उसका बैंक अकांउट नहीं होगा तो यह पैसा उसके माता-पिता के खाते में सरकार ट्रांसफर करती है। यह पैसा सरकार तब तक मरीज को देती है जब तक वह टीबी की दवाएं ले रहा होता है। क्योंकि टीबी सिर्फ दवाओं से नहीं बल्कि पौष्टिक खाने से जड़ से खत्म होता है। अब अगर किसी के घर सिर्फ बच्चे को ही टीबी है और उसके माता या पिता को 500 रुपए सरकार से मिल रहे हैं तो इतनी बदहाली में रहने वाले ये लोग क्या इसके बावजूद भी ये पैसा सिर्फ बच्चे पर ही खर्च करने को तैयार होंगे यह बड़ा सवाल है। हालांकि, अपने शुरूआती दौर से योजना के तहत सरकार अब तक 427 करोड़ रुपए खर्च कर चुकी है जिससे 26 लाख लोगों ने फायदा उठाया है। यह बात विश्व स्वास्थ्य संगठन की जारी की गई ग्लोबल टीबी रिपोर्ट 2020 में कही गई है।

   

बच्चे नही हैं किसी की प्राथमिकता

बच्चों में टीबी को स्वास्थ्य संगठन हमेशा से अनदेखा कर रहे है और वे इसे कोई गंभीर जन स्वास्थ्य का मुद्दा नहीं मानते। यही वजह है कि देश के टीबी कार्यक्रम में बच्चों में टीबी को कुछ खास तवज्जों नहीं मिलती। यही नही बल्कि जब बच्चों में टीबी का इलाज होता है तब भी कई बार उन्हें नोटिफाई भी नहीं किया जाता इस वजह से कभी सही से यह पता चल ही नहीं सका कि देश में दरअसल कितने बच्चे टीबी से ग्रसित हैं। हालांकि जून 2020 में अपडेट की गई टीबी फैक्ट्स की साइट के मुताबिक भारत में 2018 में बच्चों में टीबी के कुल 1,33,059 मामले नोटिफाइड हुए हैं। जिसमें सरकारी अस्पताल में 87869 और प्राइवेट अस्पतालों में 63417 मामले दर्ज हुए। विश्व स्वास्थ्य संगठन की जारी की गई ग्लोबल टीबी रिपोर्ट 2020 में बताया गया है कि मोलेक्यूलर डाइग्नोसिट्क की मौजूदगी की वजह से जहां 2018 में 6 प्रतिशत बाल और किशोर टीबी मरीजों की पहचान हो पा रही थी वहीं अब 2019 में यह तादाद बढ़कर 8 प्रतिशत हो गई है। यानी ये कि टीबी की शिनाख्त जितनी जल्दी बच्चों और किशोरों में होगी उतनी ही जल्दी उसका इलाज शुरू हो सकेगा। विश्व स्वास्थ्य संगठन की 2018 की रिपोर्ट बताती है कि दुनिया में 15 साल से कम उम्र के करीब 10 लाख बच्चे टीबी के मरीज थे जिसमें 2017 में हर चार में से एक बच्चा टीबी की वजह से मर रहा था। और 2015 में टीबी से मरने वाले 96 प्रतिशत बच्चे ऐसे थे जिनको इस बीमारी का इलाज ही नसीब नही था।

आज इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि दुनिया के कमोबेश सभी हेल्थ सिस्टम टीबी के बच्चों की अनदेखी करते हैं इसकी वजहें भी कई है। पहला, बच्चे इस संक्रमण को बड़ों की बनिस्बत कम आगे ले जाते है, दूसरा, बच्चों में टीबी की शिनाख्त करनी ज्यादा मुश्किल होती है। बच्चे स्पूटम नहीं निकाल पाते जिसका टेस्ट हो सके। ऐसी हालत में डॉक्टर उनके पेट के लिक्विड टेस्ट से टीबी की शिनाख्त करते हैं जो ज्यादातर सही नहीं होती तीसरा, टीबी के साथ जी रहे बच्चों में मरने का ग्राफ काफी कम होता है (मल्टी ड्रग रेसिस्टेंस मामलों में भी) हालांकि पांच साल से कम उम्र के बच्चों को अगर टीबी होता है और उन्हें वक्त पर इलाज नही मिलता तो उन्हें बचाना काफी मुश्किल हो जाता है। थोड़े बड़े बच्चों में अगर टीबी बिगड़ जाता है तो बैक्टीरिया फेफड़ों से बाहर के अन्य अंगों को संक्रमित करना शुरू कर देता है जैसे- हड्डी, दिमाग या शरीर के जोड़ जो बच्चे की हालत को और नाजुक बना देते हैं।

एमडीआर-टीबी है बड़ी चुनौती

राकेश तो छह महीने में ठीक होकर आम जिंदगी जी रहा है लेकिन उस जैसे हजारों लाखों बच्चे जो स्लम में जी रहे हैं और जो एमडीआर-टीबी के मरीज हो गए हैं उनकी जिन्दगी दिक्कत भरी हो जाती है। दरअसल, एमडीआर-टीबी बच्चों में होने की सबसे बड़ी वजह है गलत दवाओं का मिश्रण या दवाओं को सही तरीके से नियमित न ले पाना। क्योंकि ये दवाएं बच्चों की खासतौर से नहीं होती इन्हें अक्सर तोड़कर, कूटकर या पीस कर उनको दिया जाता है जिसमें दवा की मात्रा इधर-उधर होने की गुंजाइश होती है। एमडीआर-टीबी के साइड इफेक्ट भी बच्चे का शरीर तोड़ देते हैं। अक्सर बच्चों को कम दिखने और सुनाई देने लगता है, उल्टी और चक्कर आना, हेपिटाइटिस, नर्व डैमेज, दौरे पड़ना, एंजाइटी, डिप्रेशन और मानसिक रोग भी हो जाते हैं। तो इस लंबे और मुश्किल दवा के कोर्स में बच्चा कमजोर तो हो ही जाता है अक्सर उसके सुनने की ताकत भी खत्म हो जाती है। इसके अलावा इनका परिवार भी गरीबी में चला जाता है क्योंकि एमडीआर-टीबी का इलाजा खासा मंहगा है। दुख की बात है कि भारत में बच्चों में इस तरह के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। ये भी देखा गया है कि जिन घरों में टीबी के मरीज पहले से ही हैं उन घरों में बच्चों में टीबी की पहचान या उससे बचाव की दवाएं बच्चों को देने पाने में डॉक्टर इनके साइड इफेक्ट के डर से अक्सर नजरअंदाज कर देते हैं।

2018 की विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में इस तरह के करीब 11 प्रतिशत स्वस्थ बच्चों को ही प्रीएन्टिव दवाएं मिल पाती है। 2011 में जब विश्व स्वास्थ्य संगठन ने पहली दफा अपनी सालाना रिपोर्ट में बाल और किशोर टीबी के आंकड़ों को शामिल किया था। उस वक्त संगठन ने रिपोर्ट के जरिए दुनिया को बताया कि करीब 5 लाख मामले बच्चों में टीबी के थे जिसमें 64,000 ने इसी बीमारी से अपनी जान दी। हालांकि, यह आंकड़ां 2012 में 5 लाख से पार कर 5,30,000 हो गया  और उस साल टीबी से मरने वाले बच्चों की तादाद 74,000 थी। लेकिन, अभी भी बच्चों में एमडीआर-टीबी का कोई आंकड़ा मौजूद नहीं है। एमडीआर-टीबी बच्चों में टीबी की पहचान, बचाव और उसका प्रबंधन सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती है।

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बहरहाल, एक लंबे अर्से बाद भारत सरकार ने टीबी के बच्चों की सुध तो लेनी शुरू की है लेकिन, फिर भी अभी बहुत रास्ता तय करना बाकी है। ग्रामीण इलाकों में बदहाल स्वास्थ्य सुविधाएं और प्राइमरी हेल्थ केयर सिस्टम के साथ प्राइवेट स्वास्थ्य सुविधाओं पर कोई अंकुश न होना इस दिशा की बड़ी चुनौतियां है। दुर्भाग्य की बात है कि बीसीजी बच्चों में टीबी को लंबे वक्त तक रोकने के लिए उतना कारगर नहीं हो पाया। बच्चों में टीबी को रोकने का एक सटीक तरीका यह भी है कि पहले बड़े लोगों पर इसको काबू किया जाए ताकि बच्चों तक आने वाले संक्रमण को कम किया जा सके। फिलहाल कोरोना ने सरकार, मरीज और इस काम से जुड़े लोगों की हालत और ज्यादा बदतर की है। कोरोना का यह दौर कब तक चलेगा मालूम नहीं लेकिन, कुछ महीनों में ही इसका जो कमरतोड़ असर मरीजों और संभावित मरीजों पर पड़ा है या आगे पड़ने की गुंजाइश है वह भी किसी महामारी से कम नही आंकी जानी चाहिए।

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